इस काव्य में यह दिखलाया गया है कि अपनी आन व शान रखने के लिए छोटी से छोटी बात पर भी लड़ाई छिड़ जाया करती थी, चाहे वह विवाहापरांत गौना न होने देना हो या स्रियों के लिए सौंदर्य- प्रेम। देवी- देवताओं के प्रति पूज्य भाव इस गाथा की खासियत थी। महोबा की "मनिया देवी' का मंदिर है। बह बनाफरों की उपास्या बताई गई है। प्रत्येक लड़ाई के वर्णन के प्रारंभ में "सौरनी' (सुमिरन) गाथा का अंग है। कहते हैं कि देवी शारदा के वरदान से तो आज्हा मालामाल है। उसे तलवार में विश्व नष्ट करने की शक्ति मिली है। वह अजर- अमर है।
गाथा में कुछ कमजोरियाँ भी हैं। द्वन्द्व या सामूहिक लड़ाइयों के वर्णन में अतिशयता है। लड़ाइयों में कहीं कहीं केवल पात्रों के नाम बदल जाते हैं। शेष घटनाएँ वही रहती हैं। पुनरावृत्ति से थकान होती है। भौगोलिक ज्ञान की प्रत्याशा भी व्यर्थ है। कुछ नगर, गढ़ों का तो निश्चय ही नहीं हो पाया है। एक लड़ाई में लाखों का मारा जाना साधारण- सी बात है। पशु- पक्षी इस लड़ाइयों में साधक या बाधक दिखाए गए हैं। उड़ने वाले बछेड़े हैं, जादूगरनियाँ हैं, बिड़िनियाँ हैं। कबंध युद्ध रत दिखाए गए हैं। बुद्धिजीवी- श्रोता के लिए उन्हें हजम करना मुश्किल है।
स्थान- भेद और बोली के साथ गाथा के पात्र भी बदले हैं। कन्नौजी तथा भोजपुरी पाठ में आल्हा का विवाह नैनागढ़ की राजकुमारी सोनवती (सुनवा) से हुआ था, पश्चिमी हिंदी पाठ में हरद्वार के राघोमच्छ की पुत्री माच्छिल उसकी पत्नी थी।
पूरा आल्ह खंड सुनने- पढ़ने के उपरांत उदयसिंह (उदल, ऊदन, रुदल) की वीरता के कारनामे, हर लड़ाई में उसकी चमकती हुई तलवार, श्रोता या पाठक को सोचने को बाध्य करती है कि इसका नाम "आल्ह खंड' क्यों पड़ा। अल्हैतों का विश्वास है कि "धीर- वीर' आल्हा महाभारत के युधिष्ठिर का प्रतिरुप है ओर उसका भाई उदल अर्जुन का। आल्हा की तलवार में सर्वनाश करने की शक्ति है, किंतु वह उसे प्रयोग नहीं लाता।
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